अमेरिका को सता रहा है डॉलर की वैश्विक हैसियत को खतरा
नई दिल्ली (आलोक शर्मा) अमेरिका और भारत के बीच ट्रेड वॉर का प्रमुख कारण क्या है, क्या सच में यह रूस से ऑयल लेने के कारण है या इसके पीछे कोई और कारण है? यह सबसे बड़ा सवाल सबके सामने है। आखिर दुनिया के सामने दो मजबूत दोस्त कैसे दुश्मन बन सकते हैं। क्या भारत-रूस ऑयल डील अमेरिका-भारत ट्रेड वॉर का प्रमुख कारण है? कहने को तो ऊपरी तौर पर दिखने वाला यह एक कारण है, लेकिन पूर्ण रूप से यही कारण नहीं है। भारत रूस से कच्चा तेल इसलिए खरीद रहा है क्योंकि यह भारत को सस्ते दामों में मिल रहा है, जिससे भारत अपने नागरिकों को राहत दे पा रहा है।
रूस-यूक्रेन युद्ध के बाद अमेरिका चाहता है कि रूस की अर्थव्यवस्था को किसी तरह का सपोर्ट न मिले, लेकिन भारत ने अपने हितों को प्राथमिकता दी — जो किसी भी संप्रभु राष्ट्र का अधिकार है। पर इस ट्रेड वॉर के पीछे की जो इसली वजह है वो अमेरिका को आपत्ति व्यापार की मुद्रा को लेकर है यानी डॉलर के बिना व्यापार, आखिर कैसे और क्यों? यह एक छुपा हुआ लेकिन बहुत महत्वपूर्ण कारण है। क्योंकि भारत और रूस के बीच जो ऑयल ट्रेड हो रहा है, उसमें कई बार डॉलर की जगह भारतीय रुपया, रूसी रूबल, या कभी-कभी युआन (चाइनीज़ करेंसी) का उपयोग किया गया है।
इससे अमेरिका को आपत्ति है। अमेरिका का मानना है कि इससे डॉलर की वैश्विक हैसियत को खतरा पैदा हो गया है। भारत, रूस और चीन की त्रिकड़ी ने इसकी शुरूआत कर दी है। वैश्विक व्यापार में डॉलर की प्राथमिकता अमेरिका की सबसे बड़ी ताकतों में से एक है। अगर अन्य देश डॉलर से इतर व्यापार करने लगें, तो डॉलर की डिमांड घटेगी और अमेरिका की आर्थिक पकड़ कमजोर होगी। साथ ही डॉलर न होने का मतलब है कि SWIFT नेटवर्क (जो अमेरिकी नियंत्रण में है) से बाहर ट्रांजैक्शन हो रहे हैं — इससे अमेरिका की निगरानी क्षमता कम हो जाती है।
SWIFT (सोसाइटी फॉर वर्ल्डवाइड इंटरबैंक फाइनेंशियल टेलीकम्युनिकेशन) एक सुरक्षित मैसेजिंग नेटवर्क है जिसका उपयोग दुनिया भर के बैंक और वित्तीय संस्थान अंतर्राष्ट्रीय भुगतानों के लिए करते हैं। यह एक वैश्विक प्रणाली है जो बैंकों को एक-दूसरे के साथ सुरक्षित और मानकीकृत तरीके से संवाद करने की अनुमति देती है। 'De-dollarisation' की चिंता अमेरिका को सता रही है। भारत, रूस, चीन जैसे देश अगर स्थानीय करेंसी या अल्टरनेटिव पैमेंट सिस्टम (alternate payment systems) का इस्तेमाल करेंगे, तो यह एक 'De-dollarisation movement' मानी जाती है — जो अमेरिका के लिए रणनीतिक और आर्थिक चुनौती बन सकती है।
ऐसे में यह ट्रेड वॉर ऐसे ही शुरू नहीं हुआ। अमेरिका की आपत्ति असल रूस से तेल खरीद तो है ही क्योंकि इससे रूस और यूक्रेन वॉर के बीच रूस को आर्थिक समर्थन मिलता है। लेकिन डॉलर के बिना व्यापार होना डॉलर की ताकत और वैश्विक प्रभुत्व को सबसे बड़ा खतरा है। इसके अलावा वो इस ट्रेड वॉर के जरिए रूस के साथ हो रही S-400 मिसाइल डील को प्रभावित करना चाहता है ताकि भारत रूस के बजाय US रक्षा उपकरण खरीदे। अमेरिकी आर्थिक मामलों के जानकार यह भी मानते हैं कि डेटा लोकलाइजेशन व ई-कॉमर्स नीति के चलते अमेरिकी कंपनियों पर भारत के कड़े नियम लागू हो गए हैं जो उनके व्यापार के लिए बड़ी चुनौती है।
निष्कर्ष तौर पर देखें तो भारत और अमेरिका के बीच व्यापारिक मतभेद बहुस्तरीय हैं। रूस से तेल खरीदना और डॉलर से बाहर व्यापार करना अमेरिका के लिए रणनीतिक रूप से असहज स्थिति बनाता है। 'De-dollarisation' का खतरा अमेरिका को बहुत सता रहा है। भारत, रूस और चीन इसकी शुरूआत तेजी से कर रहे हैं और तीनों ही आर्थिक महाशक्ति भी हैं। इस बीच भारत अपनी रणनीतिक स्वायत्तता, आर्थिक जरूरतों और राष्ट्रीय हितों को प्राथमिकता दे रहा है — और यही बात इस तनाव की जड़ में है। देखना होगा भारत अब इससे कैसे निपटता है।